एक मैं हूँ अब
की कोई याद नही करता
एक दिन था
जब हर कोई मुझ पर
था मरता
दूरियों को मिटाना
रोतों तो हसाना
सब मुझ बिन कहाँ मुमकिन था
भोर होती तो डाकिया आता था
हर घर मैं मेला सा लग जाता
था
कहीं किसी का आना
कहीं किसी का जाना था
सबको ये ख़बरें
मेरा काम पहुँचाना था
फौजी जो शरहद पर
और परिवार घर पर रोते थे
उनके आंसुओ से
मैं ही भिगोया जाता था
पर मेरी कोन यहाँ
व्यथा है आज सुनने वाला
हाँ मालूम है
सबका वक़्त
एक दिन ढल जाना है
जामना नया है
और मेरा काम पुराना है
तब मैं जो करता था
अब वो छुटकू कर है
मैं दिन लगाता था
और वो पल लगाता है
और कहाँ कोई अब मेरे
झंझट में पड़ना चाहता है
पर अगर मैं जिन्दा हूँ
तो अहसास कहाँ मर जाता है
और अगर मैं मुर्दा हूँ
तो क्यूँ दफनाया नही जाता
है
कोई कब्र तो होती
जो बच्चे देख कर पूछते..
क्या है ?
और जानते की हाँ
ये ख़त कहलाया जाता है
मेरे लिए तो
दुविधा है
दुःख है
पर रो भी पाना
नामुमकिन है
मेरा तो आंसू भी
मेरी मौत बन जाता है
संदीप सिंह रावत (पागल)
संदीप सिंह रावत (पागल)
बहुत सुंदर रचना.
ReplyDeleteदिल से शुक्रिया राजू जी आपके तारीफ़ भरे लफ्जों का मोल मेरे लिए क्या है ये शायद आप नही जान पाएंगे ... :)
Deleteआपने कहा था की प्रेम के आलावा भी बहुत कुछ है लिखने को तो सोचा कुछ और भी लिखना चाहिए ...
धन्यवाद